मुनीर अहमद मोमिन
1- हिंदी (खड़ी बोली) की पहली कविता प्रख्यात कवि ‘अमीर खुसरों’ ने लिखी थी। 2- आपको यह जानकर भी आश्चर्य होगा कि हिंदी भाषा के इतिहास पर पहले साहित्य की रचना भी ग्रासिन द तैसी, एक फ्रांसीसी लेखक ने की थी। 3- हिंदी और दूसरी भाषाओं पर पहला विस्तृत सर्वेक्षण सर जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन (जो कि एक अंग्रेज हैं) ने किया। 4- हिंदी भाषा पर पहला शोध कार्य ‘द थिओलॉजी ऑफ तुलसीदास’ को लंदन विश्वविद्यालय में पहली बार एक अंग्रेज विद्वान जे.आर. कार्पेंटर ने प्रस्तुत किया था। आज 14 सितंबर शनिवार को हिंदी दिवस’ है। जो प्रत्येक वर्ष 14 सितम्बर को मनाया जाता है। 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने एक मत से यह निर्णय लिया कि ‘हिन्दी’ ही भारत की राजभाषा होगी। इसी महत्वपूर्ण निर्णय के महत्व को प्रतिपादित करने तथा हिन्दी को हर क्षेत्र में प्रसारित करने के लिये राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के अनुरोध पर सन् 1953 से संपूर्ण भारत में 14 सितंबर को प्रतिवर्ष हिन्दी-दिवस के रूप में मनाया जाता है। हिंदी भाषा को देवनागरी लिपि में सन 1950 में अनुच्छेद 343 के अंतर्गत राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया गया।
हिंदी भाषा प्रेम, मिलन और सौहार्द की भाषा है,इस भाषा की उत्पत्ति ही इस बात का प्रमाण है। हिंदी मुख्यतः आर्यों और पारसियों की देन है। हिंदी के अधिकतम शब्द संस्कृत, अरबी और फारसी भाषा से लिए गये है और यह भाषा अवधी, ब्रज आदि स्थानीय भाषाओं का परिवर्धन भी है। इसीलिए तो इस भाषा को ‘सम्बन्ध भाषा’ के नाम से भी जाना जाता है। हिंदी (खड़ी बोली) की पहली कविता प्रख्यात कवि ‘अमीर खुसरों’ ने लिखी थी। स्वतंत्रता संग्राम के समय तो हिंदी का प्रयोग अपने चरम पर था। भारतेंदु हरिश्चंद्र, मुंशी प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, हरिशंकर परसाई, महादेवी वर्मा, हरिवंश राय बच्चन,सुभद्रा कुमारी चौहान जैसे लेखकों और कवियों ने अपने शब्दों से जनमानस के हृदय में स्वतंत्रता की अलख जलाकर इस संग्राम में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। महात्मा गांधीजी के स्वदेशी आन्दोलन में तो अंग्रेजी भाषा का पूर्ण रूप से त्याग कर हिंदी भाषा को अपनाया गया। यह भाषा केवल एक देश तक सीमित नहीं है, संयुक्त राष्ट्र अमेरिका, ग्रेट ब्रिटेन, दक्षिण अफ्रीका, मलेशिया, सिंगापुर जैसे कई देशों तक इसका विस्तार है। हिंदी भाषा विश्व में सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली तीसरी भाषा है। देश के गुलामी के दिनों में यहाँ अँग्रेज़ी शासनकाल होने की वजह से, अंग्रेजी का प्रचलन बढ़ गया था। लेकिन स्वतंत्रता के पश्चात देश के कई हिस्सों को एकजुट करने के लिए एक ऐसी भाषा की जरूरत थी जो सर्वाधिक बोली जाती हो। हिंदी भाषा ही तब एक ऐसी भाषा थी जो सबसे ज्यादा लोकप्रिय थी। धीरे-धीरे हिंदी भाषा का प्रचलन बढ़ा और इस भाषा ने राष्ट्रभाषा का रूप ले लिया।
हिंदी शब्द वास्तव में फारसी भाषा से लिया गया है
‘हिन्दी’ वास्तव में फारसी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है- हिन्दी का या हिंद से संबंधित। हिन्दी शब्द की निष्पत्ति सिन्धु-सिंध से हुई है। ईरानी भाषा में ‘स’ का उच्चारण ‘ह’ किया जाता था। इस प्रकार हिन्दी शब्द वास्तव में सिन्धु शब्द का प्रतिरूप है। कालांतर में हिंद शब्द संपूर्ण भारत का पर्याय बनकर उभरा। इसी ‘हिन्द’ से हिन्दी शब्द बना। आज हम जिस भाषा को हिन्दी के रूप में जानते है, वह आधुनिक आर्य भाषाओं में से एक है। आर्य भाषा का प्राचीनतम रूप वैदिक संस्कृत है। जो साहित्य की परिनिष्ठित भाषा थी। वैदिक भाषा में वेद, संहिता एवं उपनिषदों-वेदांत का सृजन हुआ है। वैदिक भाषा के साथ-साथ ही बोलचाल की भाषा संस्कृत थी। जिसे लौकिक संस्कृत भी कहा जाता है। संस्कृत का विकास उत्तरी भारत में बोली जाने वाली वैदिक कालीन भाषाओं से माना जाता है। अनुमानत: 8वीं शताब्दी ईसा पूर्व में इसका प्रयोग साहित्य में होने लगा था। संस्कृत भाषा में ही रामायण तथा महाभारत जैसे ग्रंथ रचे गए। वाल्मीकि, व्यास, कालिदास, अश्वघोष, माघ, भवभूति, विशाख, मम्मट, दंडी तथा श्रीहर्ष आदि संस्कृत की महान विभूतियां है। इसका साहित्य विश्व के समृद्ध साहित्य में से एक है।
संस्कृत कालीन आधारभूत बोलचाल की भाषा परिवर्तित होते-होते 500 ईसा पूर्व के बाद तक काफ़ी बदल गई। जिसे ‘पाली’ कहा गया। महात्मा बुद्ध के समय में पाली लोक भाषा थी और उन्होंने पाली के द्वारा ही अपने उपदेशों का प्रचार-प्रसार किया। संभवत: यह भाषा ईसा की प्रथम ईसवी तक रही। पहली ईसवी तक आते-आते पाली भाषा और परिवर्तित हुई, तब इसे ‘प्राकृत’ की संज्ञा दी गई। इसका काल पहली ईसवी से 500 ईसवी तक है। पाली की विभाषाओं के रूप में प्राकृत भाषाएं- पश्चिमी, पूर्वी, पश्चिमोत्तरी तथा मध्य देशी, अब साहित्यिक भाषाओं के रूप में स्वीकृत हो चुकी थी, जिन्हें मागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री, पैशाची, ब्राचड तथा अर्धमागधी भी कहा जा सकता है। अपभ्रंश से ही हिन्दी भाषा का जन्म हुआ। आधुनिक आर्य भाषाओं में, जिनमे हिन्दी भी है, का जन्म 1000 ईसवी के आसपास ही हुआ था। किंतु उसमे साहित्य रचना का कार्य 1150 या इसके बाद आरंभ हुआ। यही कारण है कि हजारी प्रसाद द्विवेदी जी हिन्दी को ग्राम्य अपभ्रंशों का रूप मानते है। आधुनिक आर्यभाषाओं का जन्म अपभ्रंशों के विभिन्न क्षेत्रीय रूपों से इस प्रकार माना जा सकता है – 1- अपभ्रंश- आधुनिक आर्य भाषा तथा उपभाषा। 2-पैशाची- लहंदा,पंजाबी। 3- ब्राचड- सिन्धी। 4- महाराष्ट्री- मराठी। 5- अर्धमागधी- पूरवी, हिन्दी। 6- मगधी -बिहारी ,बंगला,उड़िया,असमिया। 7- शौरसेनी- पश्चिमी हिन्दी, राजस्थानी, पहाड़ी, गुजराती। उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि हिन्दी भाषा का उद्भव, अपभ्रंश के अर्धमागधी, शौरसेनी और मगधी रूपों से हुआ है।
हमारे अवचतेन की भाषा हमारी मातृभाषा ही होती है
जैसे-जैसे संचार (कम्युनिकेशन) का प्रभुत्व बढ़ रहा है, भाषा पर होने वाली बहसें इस तथ्य पर सिमटती जा रही हैं कि “बस, आपको अपनी बात दूसरों तक पहुंचानी भर है, फिर चाहे उसे आप कैसे भी पहुंचाएं। यहां तक कि यदि भाषा का चेहरा (लिपि, वर्तनी) भी बिगड़ता है, तो कोई बात नहीं… चलेगा… ज़रूरी केवल यह है कि आपकी बात उस तक पहुंचे…” यह टेक्नोलॉजी द्वारा फैलाया गया एक भाषाई भ्रम है, क्योंकि इससे उसे सहूलियत हो जाती है और निःसंदेह, उन्हें भी, जिन्हें भाषा का उपयोग करना है। ऐसा पूरी दुनिया में हो रहा है लेकिन निःसंदेह हमारे यहां कुछ ज़्यादा हो रहा है। मनुष्य जिसे जीता है, वह जो कुछ भी करता है, वह सब मूलतः उसके अवचेतन के स्तर पर होता है. यहां तक कि सोचने और विचारने का काम भी। चेतन के स्तर पर तो, जो हमें होता हुआ दिखाई देता है, केवल अवचेतन की अभिव्यक्ति भर है। अवचेतन और चेतन के बीच जो सूत्र है, जो दोनों को एक-दूसरे से जोड़कर एक बनाए रखता है, जो उनमें संतुलन और सामंजस्य कायम करता है, वह भाषा ही है, एकमात्र भाषा ही। इसी भाषा के ज़रिये ये दोनों एक-दूसरे से निरंतर संवाद करते हुए एक-दूसरे के संपर्क में रहते हैं। यानी, हमारे अवचतेन की भाषा हमारी मातृभाषा ही होती है। फिर चेतना की भाषा कौन-सी होती है? दरअसल, सारी भाषायी जद्दोजहद इसी प्रश्न के उत्तर की खोज में निहित है। समाज की भाषा, शिक्षा की भाषा, व्यवसाय की भाषा तथा आज के संदर्भ में निःसंदेह, टेक्नोलॉजी की भाषा ही वह है, जिससे हमारी चेतना की भाषा का निर्माण होता है। यदि यह भाषा वही है, जिसका हमारे अवचेतन में मेल खा रहा है, तो यह व्यक्ति के लिए वरदान बन जाती है। इस स्थिति में भाषा केवल ज्ञान और कम्युनिकेट करने मात्र की भाषा न रहकर बोध की भाषा बन जाती है, अनुभव करने की भाषा बन जाती है। बोध का स्तर ही वह स्तर होता है, जहां रचनात्मकता का, नवीनता का, अनुसंधान का तथा असाधारणता का विपुल-अद्भुत भंडार हमारी राह देख रहा होता है।
वर्तमान में भाषा के संकट ने अवचेतन तक पहुंच पाने के हमारे संकट को कई-कई गुना बढ़ाकर उसे असंभव बना दिया है, क्योंकि न तो चेतन की भाषा को अवचेतन समझ पा रहा है और न अवचेतन की भाषा (जो संकेतों में, कोड में, स्वप्न के दृश्यों में होते हैं) को चेतन डीकोड कर पा रहा है। भाषा की इस खाई ने ‘इनोवेशन’ की हमारी सारी संभावनाओं की भ्रूण-हत्या कर दी है।
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